वे हमारे आँगन की बुलबुलें थीं
चहकती महकती बिखरी रहती
भरे पूरे घर में
उनके बिना अधूरे थे हमारे सभी
तीज त्यौहार ,
वे रंगो से भरी कोई पिचकारी थीं
जिनके चलने से रंग जाते
घर के दरो दीवार ,
वे मौसमी बार....
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हिन्दी साहित्य की पत्रिकाओं की भीड़ में अलग पहचान बनाने वाली 'पाखी' का प्रकाशन सितंबर, 2008 से नियमित जारी है।