बदस्तूर
शोर में दबती रहीं सिसकियां कलपती रह गई संवेदना
जैसे अग्निकुंड में विलुप्त होती रहीं चीखें
बजते रहे शंख बजते रहे ढोल बजती रहीं घंटियां
परंपरा जारी है बदस्तूर।
साथ दूर कितना पास है पास कितना दूर
दूर तुम दूर ही रहो मै....
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हिन्दी साहित्य की पत्रिकाओं की भीड़ में अलग पहचान बनाने वाली 'पाखी' का प्रकाशन सितंबर, 2008 से नियमित जारी है।