ऋचा यादव

सम्मोहन

चलती ट्रेन की आवाज मेरे कानों में गूंज रही थी। रेल की पटरियों की थरथराहट मेरे शरीर के कंपन की साथी बन चुकी थी। तभी मेरी आंखें खुलती हैं। 
ट्रेन रुक चुकी थी और एक अनजानी-सी साथी अब शांत हो चुकी थी। सामान तो कुछ था नहीं मेरे पास सो अपनी पानी की बोतल उठाकर मैं स्टेशन पर उतर गई। 
सुनसान पड़ा स्टेशन मानो अपनी बेजुबां कहानियां बताने की कोशिश कर रहा हो जिन्हें स....

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