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कटु प्रतिक्रिया को अन्यथा न लें

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आपके कार्यकारी संपादक द्वारा लिखा संपादकीय (पाखी, अक्टूबर-नवंबर, संयुक्तांक) ‘भय का भाष्य’ पढ़कर मुझे गहन निराशा का बोध हुआ। बीते एक बरस के दौरान आपके संपादकीय मुझे प्रभावित करते आए हैं और समय-समय पर मैं आपको उन पर अपनी प्रतिक्रिया भी भेजता रहा हूं। कृपया अपने कार्यकारी संपादक की अपरिपक्व लेखनी के का....

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