‘‘हमरा दुख़ अछि
कविता हमर कांचे रहि गेल
एहि जारनि संउड़ल कहां धधरा
व्यथा कहब ककरा
कथा कहब ककरा?’’
मुझे दुख है कि मेरी कविता कच्ची रह गई। इस जलावन से लपटें कहां निकलीं। अपने दुख़ की यह....
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हिन्दी साहित्य की पत्रिकाओं की भीड़ में अलग पहचान बनाने वाली 'पाखी' का प्रकाशन सितंबर, 2008 से नियमित जारी है।