"बू-ए-गुल, नाला-ए-बुलबुल, दूद-ए-चराग़-ए-महफ़िल,
जो तेरी बज़्म से निकला, वो परीशाँ निकला.."
मिर्ज़ा ग़ालिब का ये वही शेर है जो (अपने अज़ीज़ मेहमानों को रोकने में नाकाम) राजनीतिक जगत की एक दिग्गज साहित्यिक हस्ती, 2015 की रूमानी फरवरी में, नीलाभ का हाथ पकड़े गुनगुना रही थी।हमें लौटना था, जो हमारे मेजबान को क़बूल नहीं हो रहा था। वो घर की देहरी पर, सुंदर गुलाबों की क्यारी से सज....
