जगदीश सौरभ

मेरे दुःख


रात के गहरे सन्नाटे में 
गली के खंभों पर लटके जुगनू थकर कर ऊंघने लगते हैं,
मेरे दुःख तब भी जागते हैं/चांद की पलकें भारी होकर/ सौ-सौ मन की नींद लिए/तारों के बीच में सो जाती है
ठीक उसी पल ओस की बूंदों की 
चमकीली गीली-गीली सी आंखों में
मेरे दुःख चमका करते हैं सौ-सौ हाथ पांव हैं दुःख के जाने तो कैसा दिखता है जैसे कोई प्रेत हो लंबी सांस खींचता ....

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