कुछ भी कहूं कुछ भी लगूं
ज्यादा देर कहीं ठहर नही सकता
सब के पैर अपनी अपनी गति से बंधे हैं
मेरे भी
एक अधीरज बोलते देखते सुनते
हमेशा रहता है मेरे साथ
कितना कहा अनकहा
कितनी आधी अधूरी
यात्रएं कविताएं
इन स्थिर दिखते पहाड़ों की
गति का भी वर्तमान है
कुछ भी कहूं ....
