मैं तिलस्म रचती हूं
हर रोज तुम्हारी देह में
खोलती हूं जाने कितने
चोर दरवाजे चुपके से यहां
और वहीं कहीं किसी दरवाजे के पीछे
टेक लगाये ख़ड़ी रहती हूं देर तक चुपचाप
इसी तिलस्म में हैं
वे वीरान सड़कें
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हिन्दी साहित्य की पत्रिकाओं की भीड़ में अलग पहचान बनाने वाली 'पाखी' का प्रकाशन सितंबर, 2008 से नियमित जारी है।