प्रज्ञा

सुरुचि, सुवास, सरस, अनुरागा

स्मृतियां बिछड़ी हुई सहेलियों की तरह होती हैं जब मिलती हैं तो घंटों सिर जोड़े दर्द के दरिया और वर्षों की दूरी के पहाड़ लांघ जाती हैं। वह समय बहुत विशिष्ट होता है जहां एक-एक स्मृति के गुंजलक को पहले हौले-हौले सुलझाया जाता है फिर सुलझे रेशों को झाड़-पौंछकर यों चमकाया जाता है कि वह इठलाकर जीवंत हो जाते हैं। आज आलोचक-संस्मरणकार-गुरुवर विश्वनाथ त्रिपाठी सर पर लिखने के क्रम में म....

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