दयानंद पांडेय

तुम्हारे बिना

जो जिंदगी बन के जीवन में उपस्थित रहा हो, आहिस्ता-आहिस्ता रास्ता बनाकर जिंदगी से पूरी तरह बाहर हो जाए तो? लगता है जैसे कोई दर्पण हो, जिस में आप खुद को देखते रहे हों, वह दर्पण ही झन्न से टूटकर चकनाचूर हो गया हो। अब देखूं तो कैसे देखूं भला खुद को। समझ नहीं आता। तुम थी जिंदगी में तो जैसे लगता था कि ऐसी खूबसूरत जिंदगी कैसे मिल गई मुझे। उस समय के दर्पण में तुम थी, मैं था। किसी हवा की त....

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