प्रेम शशांक

एक कथाकार के कबाड़खाने से निकला जखीरा

हर कवि, कथाकार और लेऽक के भीतर एक कबाड़ऽाना होता है। इस कबाड़ में वह सब कुछ बचा रहता है जो उसने समय-समय पर पढ़ रऽा होता है। इसके अलावा उसकी स्मृतियां, यात्रएं और जीवनानुभव जिनका विधागत रचनात्मक उपयोग वह नहीं कर पाता है। एक कबाड़ के रूप में इकठठा होते रहते हैं। लेकिन यह कबाड़ऽाना उसके अंतस में एक लावे की तरह धधकता रहता है और बाहर लाने की रचनात्मक अकुलाहट उसके भीतर बराबर बनी रहती ....

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