पिताश्री से. रा. यात्री बहुत ही खामोशी से चले गए। लेकिन जिंदगी के अंतिम समय तक भी उनकी चेतना बरकरार रही। एक पुरानी और जर्जर इमारत को एक दिन ढहना ही था। लेकिन उनका महाप्रयाण किसी संत के चिरनिंद्रा में लीन होने जैसा ही था। महाप्रयाण से पहली शाम मैं उनके कक्ष में गया, चाय इत्यादि पूछने। उन्होंने सिर हिलाकर इंकार कर दिया। मेरे संवाद पर भी वह मौन धारण किए रहे। मैंने उन्हें....
