भाषा का क्या करें?
बरसों से ‘पाखी’ देखने में आ रही है। लेकिन इसमें कभी कुछ नहीं लिखा। आज लिखना पड़ रहा है तो यह पत्र ही!
अक्टूबर अंक में नासिरा जी का इंटरव्यू लेने वाले का नाम गलत छपा देखा तो खयाल गुजरा कि शायद ध्यान नहीं रहने से चूक हो गई। लेकिन दो जगह यही गलती देखी तो ताज्जुब हुआ कि इस कदर मुस्तनद (प्रामाणिक) और नामी पत्रिका में भी भाषा का कबाड़ा ....
