संवेदनाओं के क्षरण काल में
वह आसमान से नहीं उतरी है
जन्मी है इसी धरती पर
मनुष्यता की कोख से
कालिख समय का अंधेरा चीरकर
उजास की ओर बढ़ती गई है
बेचैन क्षणों में धीर भाव से
वह लुढ़के हुए लोटे से पानी निकालती है
कभी पीछे देखती है और कभी आगे
गहरी लकीर खींचते हुए
अतिक्रमण कर समय के पार चली जाती है
कमर से ऊपर तक धरती में धंसी है
लेक....
