विमर्श से खारिज
उसकी मटमैली पगड़ी में
लिपटा हुआ था मेहनत का आत्मगौरव
सूरज के अवें में पका उसका चेहरा
तांबे की मूर्ति सा चमकता था
उसकी आंखें थीं मौसमों के उतार-चढ़ाव का जीवंत इतिहास
उसके कंधों पर था धरती का सारा बोझ।
घिस कर मिट गई थी उसके हाथ की रेखाएं
दुनिया की भाग्यरेखाएं खींचते-खींचते
चौड़े सीने का विस्तार
पता देता था उस विदा ले गए वषों का
