विनोद शाही

कलाकृति  होते हुए 


गर्भ  में
एक पूरी पृथ्वी
ध्ड़क रही है

उसकी ध्ड़कन
जहां थी
वहीं की वहीं रुकी रह गयी है

खुद रुकने की कला को
सीख लेती है तो

फिर नहीं रुकती
ध्ड़कन
कभी

सीख रही है पृथ्वी
धड़कना 
धड़कन  को
एक बिंब की तरह
देखती हुई

कृति से आजाद होकर
खुद अपने तौर पर
धड़कने  के लिए
मारती है
हाथ पांव
पृथ्वी

कृति जैसे ही
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