सुशीला झा

कविता की नदी में...

कविता की नदी में
डूब गई जीवन की नाव
बह गई मैं, बह गए मन—प्राण
मगर मिला नहीं कहीं पड़ाव!
तीव्र गति से, निःस्सीम स्रोत
के ज्योति—तिमिर में
ढूढ़ती ही रही शब्द मुक्ता!
सर्वस्व खोकर भी
मिला कुछ भी नहीं!
सीमाहीन भावनाओं में रही व्यथा
बार—बार पुकार कर
थक गई, कहीं भूल न जाऊं अब
अपना प्रश्न!!
मिलेगा कहां पड़ाव!!
क्या कविता की नदी में
रहेगी डूबी हो जीवन ....

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