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धीरे-धीरे
कहीं कुछ खो रहें हैं हम
पता नहीं हंस या रो रहें हैं हम क्या
आपको कुछ एहसास हो रहा है
कहीं कुछ हौले-हौले खो रहा है
लगता हैं
हम फिर असभ्य हो रहे हैं
उन्हीं नग्न जंघाओं के
भूगोल में खो रहें हैं
जिसमें खोकर
हम फिर वही आदिम मनुष्य हो
जाएंगे और पत्तियां मरे हुए
जानवर, खाएंगे बचेगी
केवल हमारी नग्नता
नीचता
ऊ कितने
कमज....
