कविता

  • लक्ष्मण रेखा

    सहम गई दुनिया सारी मय कातक मनुज समाज आज।

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  • इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं

    देह में फाँस-सा यह समय है जब अपनी परछाईं भी संदिग्ध है 'हमें बचाओ, हम त्रस्त हैं'-- घबराए हुए लोग चिल्ला रहे हैं किंतु द

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  • इन दिनों नींद

    एक अंधी गुफा में हमें छोड़ आती है अंधेरा हमें जकड़ना चाहता है करवटें मन को थकाती हुई कोई दिलासा नहीं दे पाती इंतजार

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  • ढूंढ रही है

    दूब-शिखा पर अश्रु बहाती ओस-कण सूखे  पेड़ की डाल से चिपका रज-कण संग समीर बेमंजिल भटकता डाल से टूटा पात और, चट्टानों से

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  • मां

    लोग कहते हैं मैं दिखती हूं मां जैसी पर मुझे लगता है मां तू मुझमें ही आत्मसात होती जा रही है।

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  • कैसे गाएं गीत मल्हार

    रोक लगी लेने पर सांस दिखती नहीं है कोई आस। बढ़ता जाता दुख का आकार कैसे गाएं गीत मल्हार।

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