संपादकीय

  • वर्तमान के साथ लयबद्ध होने की मौज 

    वर्तमान के साथ लयबद्ध होने की मौज 

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  • बस कुछ यूं ही

    पिछले दिनों मुझे एक संदेश मिला। एक मोहतरमा ने सूचित किया कि वे पुणे से दिल्ली आ रही हैं। मिलना चाहती हैं ताकि अपनी द

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  • जड़ विचारधाराओं के खतरे

    अरे! ये तो बड़ा ही झंझटी मामला है। ‘पाखी’ की शुरुआत तो केवल साहित्य के प्रति अनुराग के चलते की थी। नहीं तब हल्का-सा भ

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  • अंधेरे के गीत

    आज का समय उन्माद के दौर का समय है।

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  • कुछ अपनी नाकामी पर

    दरअसल, विचारधाराओं के मोहपाश का नतीजा यह रहा कि आयातित मूल्यों को ढोते-ढोते कथित धर्मनिरपेक्षवादी अपनी ही संस्कृ

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  • नशे की गर्त में देश

    धर्म और राष्ट्रवाद इन दिनों सबसे ज्यादा पसंदीदा नशा बन चुका है। नशा चाहे कोई भी क्यों न हो, नुकसानदेह ही है। अमीर बन

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  • यदि साहित्य समाज का दर्पण है तो...

    ‘देह का गणित’ एक सत्य है। ऐसा सत्य जिसे सामाजिक अथवा वैज्ञानिक कारणों के बरक्स कटु सत्य, मानसिक विकृति आदि नाम दिय

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  • गा हमारी जिंदगी कुछ गा

    Hope is the dream of a walking man -Aristotle

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  • पहचान मिटाने का षड्यंत्र

    कश्मीर घाटी में पूरी तरह एंटी इंडिया सेंटीमेट्स हावी हो चुके हैं।

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  • गजब धर्म का जलवा, सब हुए दिगम्बर

    बहुत ईमानदारी और उतने ही क्षोभ के साथ कहना चाहता हूं कि हमारा ‘बुद्धिजीवी’ कहे जाना वाला वर्ग इस दौर में धर्मरूपी

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  • मानवीय गरिमा को जिलाए रखने का प्रश्न

    इन दिनों एनआरसी, एनपीआर और सीएए को लेकर पूरे देश में भारी विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं। साथ ही समर्थन के स्वर भी सुनाई

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  • कुछ प्रेम पर, कुछ प्रेम के बहाने

    प्रेम भारद्वाज नहीं रहे। उनकी स्मृतियां उनके सभी जानने वालों के साथ हैं। कुछ के साथ दुःखद होगीं। कुछ के साथ नकारात

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  • मैं बोलता हूं अपनी तरफ से!

    यह महीना स्व. केदारनाथ जी के जन्म का महीना है। इसलिए शुरुआत उनकी कविता से। मेरे बहुत से शुभेच्छुओं का मानना और कहना

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  • ...फिर भी तुम्हें यकीं नहीं

    विश्व के तीस सबसे ज्यादा बिक्री वाले उपन्यासों में गंभीर समझा जाने वाला भारतीय साहित्य नदारद है। हां, एक भारतीय ल

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  • कुछ प्रेम पर

    मैं खुद का उदाहरण देता हूं। मैंने प्रेम विवाह किया है। मेरी पत्नी मेरी सहचर भी हैं, मित्र भी, कभी-कभी तो मार्गदर्शक

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  • आत्ममुग्ध पलायनवादी समूह

    इस ‘मेरी बात’ को लिखने बैठने से ठीक पहले एक साहित्यिक पत्रिका के संपादकीय को पढ़ मन खिन्न हो गया। खिन्न इसलिए कि धर्

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  • खालिस मनुष्य कहीं खो गया है

    अक्टूबर अंक के संपादकीय ‘आत्ममुग्ध पलायनवादी समूह’ पर मिश्रित प्रतिक्रियायें पढ़ने को मिली। ‘निकट’ के संपादक श्

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  • सवाल लेखकीय संवेदना का

    मुझे मुवाफ़ कीजिएगा कुछ अप्रिय प्रश्नों को उठाने, उन पर अपने विचार रखने के लिए। मुवाफ़ी मांगना, वह भी पेशगी बतौर आज

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  • एक जुगनू अब रोशनी का इमाम है

    वर्तमान समय में राष्ट्रवाद का उभार पूरे विश्व में देखने को मिल रहा है। यूरोप, अमेरिका, लेटिन अमेरिका और एशिया में फ

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  •  तानाशाही में तब्दील होती लोकशाही

    कवि वरवर राव, सामाजिक कार्यकर्ता रोना विल्सन, महेश राउत, सुधीर धावले, शोभा सेन, स्टेन स्वामी, गौतम नौलखा, सुधा भारद्

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  • पापश्री कहने वाली रीढ़ बनिए

    कोरोना ग्रसित 2021 एक महान साहित्यकार की जन्म शताब्दी का साल भी है। आंचलिक विधा को राष्ट्रीय पहचान देने वाले अररिया,

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  • लम्बी धोती (उच्च कुलीन)

    कहानी का शीर्षक पढ़कर आप सोच रहे होंगे कि यह कहानी सामान्य नाप से अधिक लम्बी-चैड़ी धोती पहनने वाली किसी सुघड़ सी महिला

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  • मुर्दा समाज से फूटी जिंदा कविता

    क्या आपने पारुल खक्कर का नाम सुना है? शायद कुछ ने इन दिनों उनका नाम सुना हो। शायद! संभावना इस बात की ज्यादा है कि अधिक

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  • #सिलबट्टा और स्त्री-विमर्श-1

    इन दिनों #सिलबट्टा आभासी संसार में छाया हुआ है। इसके बहाने एक और स्त्री-विमर्श चल रहा है। हिंदी में चलने वाले नाना प

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  • #सिलबट्टा और स्त्री-विमर्श-2

    भारतीय साहित्य और समाज में स्त्री विमर्श पर चर्चा से पहले कुछ बातें विश्व, विशेषकर पश्चिमी समाज के नारी विमर्श पर

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  •  #सिलबट्टा और स्त्री-विमर्श-3 

    स्त्री और पुरुष के मध्य किसी भी प्रकार का भेद करना, एक दूसरे से तुलना करना, विभाजन रेखा को विस्तार देना है। न तो पुरु

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  • जो जिया, जैसे जिया

    राजनीति पर, राजनीतिक विषयों पर, चौतरफा फैले भ्रष्टाचार, हाहाकार पर लिखते-लिखते 22 बरस होने को हैं। अब ऊब-सी होने लगी ह

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  • आदमियत से बड़ी कोई विचारधारा नहीं

    रूसी साहित्य ने मुझे अच्छे और बुरे में अंतर समझाया। वह समय लाल क्रांति का सपना हिंदुस्तान में भी फलीभूत कर पाने वा

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  • धर्म, संस्कृति और संस्कार का घातक कॉकटेल

    कामू ने कहा ‘हमारी सबसे बड़ी असफलता तो यह है कि हम आदमी न हो सका।’ यह आदमी न हो पाना दरअसल हमारे जन्म लेते ही शुरू हो

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  • यह संसार एक प्रतिध्वनि समान है

    मनुष्य निर्मित ईश्वर पर मेरी खास आस्था कभी नहीं रही। हां समय-काल और परिस्थिति अनुसार मैं धर्म स्थलों पर माथा टेकता

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  • विषय विष तो आर्जवता अमृत है

    मेरा अब तक का जिया जीवन पूरी तरह विरोधाभासी मूल्यों के बीच झूलता रहा है। भारतीय जीवन शैली में दो प्रकार की संस्कृत

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  • एक साधे सब सधे

    एक साधे सब सधे

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