प्रेम भारद्वाज पर एकाग्र

  • साहित्य के लिए उनका जाना बहुत बड़ी क्षति

    प्रेम भारद्वाज जी से मेरा परिचय लगभग एक दशक पुराना था। उन्होंने मुझसे बहुत लेख  लिखवाये हैं। प्रेम भारद्वाज जी प्

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  • प्रेम भारद्वाज एकनिष्ठ कृतज्ञता के व्यक्ति थे

    बहुत खुशी की बात है कि पाखी प्रेम भारद्वाज पर विशेषांक निकाल रही है। मगर क्षमा के साथ आपसे कहना चाहूंगा कि इस योजना

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  • प्रेरक जीवन

    मासिक पत्रिका पाखी के कारण उनसे परिचय हुआ। मुझे याद है कि दरियागंज के प्रज्ञा संस्थान में वे आए। इमरजेंसी पर वे लं

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  • होली आई तुम नहीं आए?

    ठीक होली का दिन। तारीख 10 मार्च। दिन मंगलवार। पिछली रात आचार्य किशोरीदास वाजपेयी की कालजयी पुस्तक ‘हिंदी शब्दनुशा

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  • ‘तुम जी रहे हो कि थेथरई कर रहे हो’

    प्रेम भारद्वाज का अचानक जाना मेरे लिए एक हादसे की तरह है। प्रेम भारद्वाज मुझे अपने गुरु की तरह आदर और मान देते थे। व

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  • एक अपराजेय योद्धा का बहिर्गमन

    प्रेम भारद्वाज से मेरी मुलाक़ात 2009 में हजरत निज़ामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर हुई| हमें साथ साथ कोटा जाना था| एक साहित्यिक

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  • उन्होंने पाखी को बनाया और पाखी ने उन्हें

    यह कतई नहीं कह सकता कि मैं प्रेम भारद्वाज को बहुत क़रीब से जानता था। लेकिन यह ज़रूर जानता हूं कि उनको बहुत सारे दूसर

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  • एक दूसरा भुवनेश्वर 

    उस दिन व्हाटसअप पर एक खबर तैर रही थी। प्रेम भारद्वाज को श्रद्धांजलि या नमन प्रेम---! अत्यंत दुखद! कोरोना की घोषित अघो

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  • एक मृत्यु एक मनुष्य को एक नए सिरे से समझने का अवसर है। 

    प्रेम भारद्वाज भीगे हुए कोयले के रंग के थे। ज़रा-सी हवा में उड़कर बिखरने वाले खिचड़ी बाल लिए हुए, वह एक अस्त-व्यस्त और भ

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  • कवरेज एरिया से बाहर

    सुबह-सुबह सन्देश आया कि प्रेम भारद्वाज नहीं रहे।

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  • मैं आज भी उस पौधे को देखता हूँ... 

    प्रेम भारद्वाज से मेरी पहली मुलाक़ात हंस के वार्षिक कार्यक्रम में हुई। मात्र परिचयात्मक। पहली दृष्टि में कोई जो क

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  • तुम्हें यूं ही नहीं भुलाया जा सकता प्रेम भारद्वाज!

    अब यह तो मुझे ठीक से याद नहीं कि प्रेम भारद्वाज से मेरी पहली मुलाकात कब हुई, बस इतना भर याद है कि अपने बेगारी के दिनों

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  • ‘बेदिन क्लब’ वाले प्रेम

    याद नहीं प्रेम भारद्वाज से पहली मुलाकात कब हुई। लेकिन  96-97 के दौरान वे अखबारों में फ्रंीलांसिग  करते नजर आते थे। पीर

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  • विवादप्रियता उनका स्वाभाविक गुण था

    एक रचनात्मक दोस्त का जाना कितना दुखद हो सकता है, इसका अंदाजा वही लगा सकता है जिसने कोई दोस्त खोया हो। हमने पिछले दिन

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  • खदबदाते हुए रचनात्मक एकालाप के शख्स 

    प्रेम भारद्वाज- जिनकी सबसे स्थायी पहचान है, " पाखी" के पूर्व सम्पादक के रूप में। अपने सम्पादकीय दौर के दौरान उन्होंन

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  • एसे कोई जाता है?         

    अप्रैल, 2010 में प्रेम भारद्वाज से पहली मुलाकात लुधियाना में हुई थी। 'द संडे पोस्ट' (जिसके वह तत्कालीन कार्यकारी संपाद

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  • प्रेम भारद्वाज: अप्रत्याशित व्यक्तित्व का धनी

    “क्या इतनी जल्दी जाना चाहिए था आपको प्रेम भारद्वाज? जनता हूं कि जवाब आसानी से नहीं दोगे। या रहस्यमयी मुस्कान भरके

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  • आदमी आदमीत से लबरेज, नदी पानी से

    औंधे मुंह लेटा हुआ बेहतर देष दुनिया के स्वप्न बुन रहा था। उन्हीं दिनों तो बनी होगी उसकी यह कल-कल छल-छल भाषा जिसने न स

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  • एक नगीना जो यूँ ही चला गया 

    पुष्पाँजलि फिल्म का यह गाना बजते ही मुझे कई बार उन दिवंगत हुए मित्रों और अग्रजों की याद दिला जाता है जिनसे मैं घनिष

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  • प्रेम भारद्वाज : एक स्थापित संपादक और एक बनता हुआ वक्ता

    इस दुनियावी हमाम में कमोबेश हम सभी निर्वसन हैं। ऐसे में जिनके देहात्म पर सामाजिकता, उदारता, समामेलन, संकोच और मूल्

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  • प्रेम भारद्वाज के साथ प्रेम भाव

    फ्रांस के प्रसिद्ध दार्शनिक रूसो का कथन है- मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है लेकिन सदा जंजीरों में जकड़ा रहता है।’’ इस

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  • प्रेम को जेल का जीवन आकर्षित करता था

    प्रेम भारद्वाज ने छोटा जीवन जिया। लेकिन शानदार और यशस्वी जीवन जिया। शानदार से यह तात्पर्य नहीं कि वे बहुत खुशमिजा

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  • "प्रेम से बोलो, जय माता दी..."

    प्रेम भारद्वाज और साहित्यिक पत्रिका 'पाखी', लंबे समय तक एक दूसरे की परिभाषा और परिचय रहे हैं। ज़ाहिर है मेरा उनसे पहल

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  • टुकड़ा-टुकड़ा, दो मुलाकातें

    एक लेखक और एक संपादक का जैसा रिश्ता होता है, वैसा रिश्ता था हमारे बीच। प्रेम भारद्वाज से कुल जमा दो बार मिलना हुआ। ज

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  • कुछ दिन तो और ठहर जाते...!

    हज शब्दों का....! एक नेअल्लाह सीखा दूसरे ने राम| इन्ही शब्दों की मान्यताओं को गहरे रूप में समझने, समझाने वाले और सँजोन

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  • हम हैं या हम नहीं हैं

    प्रेम जी के सम्पादकीय बहुत बेजोड़ हैं। उनमें कई प्रकार के विचारतत्वों का समावेश है जिन पर उत्तर आधुनिक समाज कभी चिं

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  • आपसे जो कहना रह गया। 

    यह बात सोच कर मेरी आँखें नम हो जाती हैं कि जो बात मुझे प्रेम भारद्वाज जी से कहनी थी वह उन से न कह कर, मैं यहाँ लिखने के

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  • मैं क्षणों में जीता हूं, शताब्दियों में मरता हूं.

    बात 2016 की है।प्रेम भारद्वाज पटना पधारे थे। नाट्य कर्मी अनीश अंकुर का फोन आया- 'प्रेम भाई पधारे हैं, अगर आपके पास कुछ स

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  • वह आग ही हो गया!

    प्रेम भारद्वाज जी से मेरी पहली मुलाकात मेरे घर पर ही हुई थी। यह 2008 का समय था। उनकी पत्नी लता जी ‘नटरंग प्रतिष्ठान’ स

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  • खत्म हुआ ‘हरे बासों का सफर’

    ‘पृथ्वी पर एक देश। देश बीच शहर। शहर में मकान। मकान के अंधेरे बंद कमरे में वह बेचैनियों का चिराग जलाकर कुछ लिख रहा है

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  • एक विज़नरी सम्पादक का जाना

    मेरा यह व्यक्तिगत विचार है कि लेखन की विधा में संस्मरण से ज़्यादा कठिन दूसरी कोई विधा नहीं। संस्मरण में कल्पना का स

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  • “मने, सोलह दूनी आठ”

    काश कि यह संस्मरण मुझे लिखना ना पड़ता, एक तो इस समय मन पर वैश्विक महामारी कोविड-19 की भयावह नकारात्मकता का बोझ लदा है, उ

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  • चुनौती स्वीकारते ही रहे प्रेम भारद्वाज...!

    वह सन् 2008 का वर्ष था। शाम का समय था लेकिन हवाओं मेंतेज़ गर्मी थी। मैं अपने पति डॉ.एम. रहमतुल्लाह के साथ ‘पाखी’ के कार्

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  • मेरे प्रेम भाई

    प्रेम भारद्वाज जी के बारे में बात करनी है तो बात पाखी से शुरू होगी। प्रत्येक रचनाकार के लिए पाखी में छपना सम्मान का

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  • अंतिम समय तक साहित्य साधना करते रहे

    विश्व प्रसिद्ध कवि जाॅन कीट्स चाहते थे कि वे एक सर्जन नहीं, बल्कि साहित्यकार के तौर पर जाने जाएं। प्रेम भारद्वाज क

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  • मैंने प्रेम भारद्वाज के जीवन को तीन चरणों में देखा

    2007 में अगस्त महीने में प्रेम भारद्वाज सर से मेरी पहली मुलाकात हुई थी। दि संडे पोस्ट साप्ताहिक के कार्यकारी संपादक

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  • मेरे ‘बंधु’ प्रेम भारद्वाज का जाना...

    पाखी पत्रिका समूह का प्रेम भारद्वाज जैसे साधारण व्यक्ति पर विशेषांक निकालने का विचार बेहद सराहनीय है। पाखी आज जि

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  • प्रेम, जिसे पाखी ने रचा उर्फ एक मुलाक़ात का वादा

    “सचमुच यह कितना बड़ा राक्षसी षडयंत्र है कि हम धो-पोंछकर, काट-छील कर हर किसी को एक ही साँचे में घोंट-पीस डालते हैं कि उस

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  • अधूरे को अंतिम न मानने की ज़िद

      मृत्यु से 24 दिन पहले अपने अंतिम फेसबुक पोस्ट में प्रेम भारद्वाज ने लिखा, '...उम्मीद एक जिंदा शब्द है। ताउम्र इस उम्म

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  • साहित्य को उन्होंने जिया है!

    साल 2005 का था। तब मैंने दैनिक हरिभूमि में प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में काम शुरू किया था। मेरा एक मित्र 'दि संडे पोस्ट'

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