दलित विमर्श ने हिंदी साहित्य को सिर्फ समृद्ध ही नहीं किया है अपितु उसका लोकतांत्रीकरण भी किया है। उसके केंद्र में यातना, पीड़ा और संघर्ष का दर्शन है, हाशिए पर पड़े उस व्यक्ति और समाज का सच है जिसे मानव मात्र होने से नकार दिया गया है। साहित्य में इस तरह के लेखन को यथार्थवाद के रूप में चिह्नित किया गया है। यथार्थवादी प्रवृति के इस उभार ने हमारी कुंद पड़ी चेतना में तोड़-फोड़ की ह....