दिविक रमेश

दिविक रमेश की तीन कविताएं


ऐसा मुझे लगा था 

घूमती थी जो निपट नंगी
छोटे भाई-बहिनों की तरह
बड़ी हो गई है 
तन उसका ढक गया है जैसे-तैसे
कुछ ऐसा ही बताया गया था मुझे
    
प्लेटफॉर्म के उधर पेड़ के नीचे
रहती है वह और कुनबा

बड़ी हो गई है वह
पूरी बारह की खागड़ी
तभी न ले रही है जोखिम
कूद-कूद कर पटरियां भर लाती है पानी
चढ़-उतर बार-बार
  ....

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