निधि अग्रवाल

वारका बीच पर डॉल्फिन

होना तो यह चाहिए था कि मैं उसके करीब जाती और उसके कंधे पर हाथ रख देती जिससे उसके भीतर भरा सब आवेग बह निकलता। होना तो यह चाहिए था कि मैं उठकर कमरे से बाहर चली जाती उसे अपेक्षित एकांत देने, जिसमें वह अपने प्रति हुई तमाम हिंसाओं और क्रूरताओं के विपक्ष में चीत्कार कर सकती लेकिन अनवरत दुख अपना मान खो बैठते हैं सो हुआ यह कि मैंने फोन स्क्रोल करते हुए उससे कहा
‘गोवा घूमने चले....

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